शिक्षा पर डॉ. अम्बेडकर के बुनियादी विचार-डॉ.एन.एस.डोंगरे

 शिक्षा पर डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर के बुनियादी विचार

(दृष्टिकोन शोध पत्रिका फेब्रु. 2021 मे पूर्व प्रकाशित)

डॉ. नागोराव शालिग्राम डोंगरे
मनोविज्ञान विभाग प्रमुख
एस.पी.डी.एम. कॉलेज, शिरपुर, जिला-धुले (MS)


परिचय: शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण चीज है, जो लोगों को ज्ञान, कौशल और योग्यता प्रदान करती है। जिससे उनके स्वयं के लिए, उनके परिवार के लिए, समाज के साथ-साथ राष्ट्रीय विकास के लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा, यह जानने की मानसिक योग्यता प्रदान कराती है। इससे पता चलता है की, शिक्षा मनुष्य के जीवन स्तर को निर्धारित कर सकती है। क्योंकि ज्ञान में ऐसी क्षमता है जो सामाजिक, बौद्धिक और नैतिक लोकतंत्र स्थापित कर सकता है। भारत यह विश्व का सबसे लोकतांत्रिक राष्ट्र माना जाता हैं। लेक़िन अब तक भारत में संपूर्ण सामाजिक, बौद्धिक और नैतिक लोकतंत्र स्थापित नहीं हो सका। इसका एक कारण भारत की गलत शिक्षा नीति हो सकती हैं। शिक्षा के बिना भारतीय लोकतंत्र जीवित नहीं रह सकता। भारतीय समाज में प्रगाढ़ बैठा हुआ अज्ञान, अंधविश्वास और जाति व्यवस्था यह सारी चीजें भारतीय लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा आंतरिक खतरा है। जाति का उन्मूलन सामाजिक, बौद्धिक और नैतिक लोकतंत्र को विकसित करने के लिए एक सबसे अच्छा समाधान है, लेकिन एक अच्छी शिक्षा नीति के बिना यह संभव नहीं है। 
एक अच्छी शिक्षा नीति होना न केवल भारत में तेज़ीसे बढ़ती बेरोजगारी का समाधान है; उसके साथ साथ भारत के अन्दर कि सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक समस्या पर एक संतुलित समाधान होना चाहिए। शिक्षा नीति आंतरराष्ट्रीय जरूर हो उसके साथ साथ वह भारत की सारी समस्याओंका हल निकालनेवाली भी अवश्य हो। इसलिए, भारत को एक अच्छी और संतुलित शिक्षा नीति चाहिए, जो सभी समस्याओं पर संतुलन समाधान प्रदान करे। इसलिए इस शोध पत्र का मुख्य उद्देश्य भारत की शिक्षा नीति पर डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर के विचारों की समीक्षा करना है, जो कि महाराष्ट्र शासन द्वारा प्रकाशित 'राइटिंग और स्पीचेस' संस्करणों औऱ अन्य स्रोत के आधार पर है। 

  1. शिक्षा नीति का उद्देश्य: डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर के विचारों में शिक्षा का उद्देश्य पुरुषों और महिलाओं के बीच 'समानता' प्राप्त करना हैं। उनकी 'स्वतंत्रता' की संकल्पना मानसिक मुक्ति के मूल सिद्धांतों की गारंटी देते हैं। और जीवन शक्ति के रूप में पृथ्वी पर नैतिकता के राज्य को बल के रूप में स्थापित करना चाहती हैं। साथ साथ पृथ्वी पर भाईचारा निर्माण करके उसे समाज की जीवित शक्ति बनाना और न्याय को भारतीय समाज का शासक तत्व बनाना हैं। डॉ. अम्बेडकर ने 1927 में बॉम्बे लेजिस्लेटिव काउंसिल डिबेट्स में शिक्षा विभाग के उद्देश्य के बारे में कहा, "शिक्षा विभाग का उद्देश्य लोगों का नैतिक और समाजीकरण करना है"।1 आज की शिक्षा को यदि इस नजरिए से देखा जाये तो, आज की शिक्षा लोगो को नैतिक और सामाजिक बनाने में लगबग असफल दिखती हैं। भारत में लगातार बढ़ेवाला भ्रष्ट्राचार, धार्मिक उत्पीड़न की घटनायें, जातीय दंगे, बढ़ती गुन्हेगारी की औसत इस का प्रमाण हैं।
  2. देश की एकता में शिक्षा की भूमिका: बाबासाहेब अपने 'कास्ट इन इंडिया' इस (निबंध) किताब में जाति निर्मिती की प्रक्रिया का जिक्र करते हैं। जाति की निर्मिती 'एंडोगैमी' और 'एक्सोगैमी' विवाह पद्धतीसे शुरू होती है, ऐसा उनका विश्लेषण हैं। एंडोगैमी का मतलब हैं अपने गोत्रोमें एवमं अपनेही जातीमें विवाह करना है। और ‘एक्सोगैमी’ का मतलब हैं अपने गोत्रो के बाहर या अपने जाती के बाहर विवाह करना है। बाबासाहब कहते हैं की, "Consequently in the final analysis creation of castes, so far as India is concerned, means the superposition of endogamy on exogamy. Thus the super position of endogamy on exogamy means the creation of caste”2. नतीजन, जातियों की निर्मिती के अंतिम विश्लेषण में, जहाँ तक भारत का सवाल है, ‘एक्सोगैमी’ पर ‘एंडोगैमी’ के महापाप का खतरा है। इस प्रकार ‘एक्सोगैमी’ पर ‘एंडोगैमी’ की सुपर स्थिति का अर्थ जाति का निर्माण है। जातिव्यवस्था भारत के लोगों को 'एक समाज' नहीं होने देती, सार्वजनिक बंधुभाव के भावनाओंको को नष्ट कर देती है। इसका असर भारतीय समाज की नैतिकता के ऊपर सीधा दिखाई देता हैं। हर व्यक्ती अपने देश के जग़ह अपने जाती का अभिमान पालता हुआ दिखाई देता हैं। इसलिए बाबासाहब कहते की, “His loyalty is restricted only to his caste. Virtue has become caste ridden and morality has become caste-bound”3. आदमी की निष्ठा केवल उसकी जाति तक ही सीमित रहती है। सदाचार जातिग्रस्त हो जाता हैं, और नैतिकता जाति में सिमट जाती हैं। बाबासाहब जाती के बारे में लिखते हैं की जात कोई दिवार जैसी भौंतिक चीज़ नहीं हैं। जो किसी शस्त्रसे तूट सके। जाती लोगो के दिमाग़ में बसी रहतीं हैं। बाबासाहब कहते की, "Caste is a notion, it is a state of mind”.4 जबतक जातिवादी व्यक्ती ख़ुद की मानसिकता नहीं बदलेगा तबतक जाती दिमाग़ से जायेगी नहीं। यदि जाती को नष्ट करना चाहते हो, तो बाबासाहब जो इलाज बताते हैं, उसको समझना होगा। वे लिखते हैं की, “The real remedy is to destroy the belief in the sanctity of the shastras”.5 शास्त्रों की पवित्रता के विश्वास को नष्ट करना वहीं असली इलाज़ बाबासाहब बताते हैं। विश्वास लोगों के सोच का अंश हैं। शिक्षा के अलावा लोगों के सोच में बदलाव लाने का औऱ कोई अच्छा विकल्प नहीं दिखाई देता। 
  3. बाबासाहब कहते हैं “Make every man and woman free from the tharldom of the shastras cleanse their minds of the pernicious notions founded on the shastras, and he or she will inter-dine and inter-marry, without your telling him or her to do so”.6 जबतक लोगों की सोच नहीं बदलतीं, तबतक विभिन्न जाती के लोगों का आपस में मिलना, एकसाथ भोजन करना, अंतरजातीय विवाह के आयोजन के लिए आंदोलन करना कृत्रिम हैं। शिक्षा के द्वारा जाती में सिमटा हुआ 'सदाचार' सार्वजनिक बनाने की जरुरत हैं। आम आदमी की निष्ठा अपने जातीसे हटकर देश हित में लाने की जरुरत हैं। विभिन्न जातिओं में बटा हुआ भारत तभी मज़बूत देश औऱ प्रगतिशील, लोकतांत्रिक समाज बनेगा। जब लोगों की ग़लत धारणायें बदल जाएगी तो लोग सकारात्मक विचार के साथ मिलेंगे, बातें कर पायेंगे, खाना और अंतर-जातीय शादी भी बड़ी ख़ुशी के साथ करेंगे। जाती के साथ ग़रीबी-अमीरी क़ी दीवारे भी ख़त्म हों जायेगी। भारत देश वास्तव में एक महाशक्तिशाली औऱ वास्तव में विश्व का आनंदी देश बनेगा। यह सारा काम एक अच्छी औऱ लोकतांत्रिक शिक्षानीति कर सकती हैं।
  4. शिक्षा औऱ गुणभेद: जाती नष्ट होने के बाद भी भारत क़े लोगों में गुणभेद बचेगा। गुणभेदोंसे लोगों क़े अंदर व्यक्तिभिन्नता बढ़ती हैं । गुणभेदोंसे जातिवाद को बढ़ावा मिलता हैं। ऐसा बाबासाहब का मानना हैं। बाबासाहब मराठी भाषा में कहते हैं, "काही ठराविक जातीचे श्रेष्ठत्व इतर जातीतील ज्ञानाभावामुळे कायम राहिले".7 ज्ञान के अभाव से अलग़-अलग़ जाती क़े अंदर गुणभेद औऱ बढ़ते हैं। समाज में किसी दो-चार जातीओं का श्रेष्ठत्व बढ़ता हैं, तो ओ अपने आपमें एक क्लास बनता हैं। देश के कई क्षेत्रों मे उनका अपना एक प्रभाव बढ़ता हैं। उससे अमीर औऱ अमीर तथा ग़रीब औऱ ग़रीब बनता हैं। यह देश हित के पक्ष नहीं होता। यदि गुणभेद कम करना चाहते हो तो भारत के हर एक छात्रों को समान शिक्षा मिलना जरुरी हैं, जो आज भारत के अंदर नहीं मिलती। बाबासाहब सरकारी स्कूलोंमें औऱ निजी स्कूलोंमें मिलनेवाली शिक्षा के भिन्नता के ख़िलाफ़ दिखाई देते हैं। “Unless casteless and classless society was created, there would be no progress in the Country”.8 जब तक जातिविहीन और वर्गविहीन समाज का निर्माण नहीं होता, तबतक देश में कोई प्रगति नहीं होती, ऐसा उनका मानना हैं।
  5. लोकतंत्र और शिक्षा: भारत का लोकतंत्र जाती व्यवस्था के कारण कमज़ोर हों रहा हैं। भारत के लोग मतदान के समय उमेदवार कि योग्यता, उसका सामाजिक योगदान औऱ विकास की नीति का ज्ञान ऐ सारी चीजें नहीं देखते। बल्की उमेदवार की जाती के साथ आर्थिक औऱ पारिवारिक बल के आधार पर मतदान करते हैं। इसलिए बाबासाहेब कहते हैं की, "There is sympathy but not for men of other caste. Would a Hindu acknowledge and follow the leadership of a great and good man? The answer must be that he will follow a leader if he is a man of his caste"9. इसका मतलब सहानुभूति है लेकिन अन्य जाति के पुरुषों के लिए नहीं। बाबासाहब प्रश्न करते हैं, क्या एक हिंदू एक महान और अच्छे व्यक्ति के नेतृत्व को स्वीकार करेगा और उसका पालन करेगा? इस प्रश्न का उत्तर वे इस तरहा देते की, वह किसी नेता का अनुसरण करेगा यदि वह उसकी जाति का व्यक्ति है, अन्यथा नहीं। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए और उसके भविष्य के लिए बहुत बड़ा ख़तरा हैं। वे कहते हैं, की “A democracy is more than a form of Government. It is primarily a mode of associated living. The root of democracy are to be searched in the social relationship, in the terms of associated life between people who form a society”.10 लोकतंत्र शासन व्यवस्था से अधिक होता है। यह मुख्य रूप से जीवन शैली है। लोकतंत्र की जड़े सामाजिक संबंध में, समाज बनाने वाले लोगों के बीच जुड़े जीवन की शर्तों में खोजना चाहिए। विभिन्न समाज के लोगों का आपस में भिड़ना भारतीय समाज कितना लोकतांत्रिक समाज हैं यह दिखता हैं। इसलिए शिक्षा के शिवा लोकतंत्र नहीं चल सकता। भारत के शिक्षा प्रणाली भारतीय समाज में लोकतंत्र की जड़े मज़बूत करनेवाली होनी चाहिऐ। भारतीय समाज में ग़लत शिक्षा निति के कारण सामाजिक, आर्थिक औऱ नैतिक लोकतंत्र निर्माण हो नहीं पाया। इसलिए भारत के आज़ादी के सत्तर साल बादभी ग़रीबी, भुकमरी, अंधविश्वास, जातिवाद औऱ धार्मिक दंगल जैसी समस्या आजभी बड़ी तादात में दिखाई देतीं हैं। “My Ideal would be a society based on Liberty, Equality, and Fraternity”.11 वे कहते हैं, की उनका आदर्श समाज स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित समाज हैं। यह सारी लोकतांत्रिक तत्व आज मौजूदा भारतीय समाज में विशेष रूप से दिखाई नहीं देते। बाबासाहब मराठी भाषा में कहते हैं, की “लोकशाहीचे प्रामुख्याने दोन शत्रु आहेत, एक म्हणजे हूकूमशाही दूसरा म्हणजे माणसा-माणसात भेद मानणारी निति किंवा संस्कृती”.12 इसलिए भारत की शिक्षा नीति लोकतांत्रिक तत्व को विकसित करनेवाली होनी चाहिए। बाबासाहब जब ८ जुलाई १९४५ को पीपल्स एज्युकेशन सोसायटी के उद्देश के बारे मराठी में कहते हैं, की "या संस्थेचे ध्येय व् उद्देश्य केवळ शिक्षण देण्याचा नाही, तर शिक्षण अशारीतीने द्यायचे की ज्यामुळे बौद्धिक, सामाजिक आणि नैतिक लोकशाहीचे प्रचलन करता येईल".13 क्या बौद्धिक, सामाजिक आणि नैतिक लोकशाही का प्रचलन भारत में नई शिक्षा निति से होग़ा? यह तो आनेवाला समय बताएगा।
  6. शिक्षा पर सरकार का नियंत्रण हो: भारत की आजकी शिक्षा ज्यादातर निजी संस्थाओ क़े नियंत्रण से चलती हैं। प्राथमिक शिक्षा के लेकर उच्च शिक्षा तक निजीकरण दिखाई देता हैं। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए निजीकरण का हवाला दिया जाता हैं। लेक़िन आज भी भारत का कोईभी विश्विद्यालय दुनियाभर के २०० विश्विद्यालय के लिस्ट में दिखाई नहीं देता। इसका मतलब यह हैं की, शिक्षा का निजिकरण होने के बाद भी गुणवत्ता बढ़ती हुई नज़र नहीं आती। शिक्षा के निजिकरण के बारे में बाबासाहब मराठी भाषा में कहते हैं की, "शिक्षणावर प्रांतिक सरकारचाच ताबा असणे इष्ट व अवश्य आहे. शिक्षण हि बाब रस्ते बांधणे, गटारी साफ ठेवणे वगैरे बाबींपेक्षा निराळ्या प्रकारची आहे. बारभाईचा कारभार तेथे उपयोगी नाही. प्रांतिक स्वायत्ता मागा आणि राष्ट्रीय दृष्टीने शिक्षणाचे धोरण ठरवा. आमची त्याला हरकत नाही. शिक्षणामध्ये एकसुत्रीपणा असला पाहिजे, शाळांचा कारभार शिस्तीने चालला पाहिजे आणि शिक्षण चोख असले पाहिजे. भलत्याच माणसांना शिक्षणामध्ये ढवळाढवळ करण्यास सवड मिळता काम नये"14. आज की शिक्षा निति में बाबासाहब की यह सारी महत्वपूर्ण बातें उपलब्ध नहीं है। गरीबों के बच्चे सरकारी पाठशालामें पढ़ते, मध्यम और अमीर लोगों के बच्चे निजी अंग्रेजी प्रांतिक और सीबीएसई पाठशालाओं में पढ़ते हैं। ऐसे स्थितिमें ग़रीब के बच्चे मध्यम और अमीर लोगो के बच्चों के साथ स्पर्धा नहीं कर पाते। शिक्षा के क्षेत्र में एकसूत्री और सरकार का होना बहुत ज़रूरी हैं। लेक़िन सरकार निजिकरण करके ख़ुदको शिक्षा से अलग करनेकी कोशिश करती नज़र आती हैं।
  7. निष्कर्ष:

उपरोक्त बाबासाहेब अम्बेडकर के विचारों के आधार पर शोधकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचा है। भारत की शिक्षानीति निम्नलिखित बिंदुओं को स्पर्श करनेवाली हो।
  1. भारत की शिक्षानिति एक लोकतांत्रिक समाज बनाने के लिए होनी चाहिए, जो संवैधानिक सिद्धांतों जैसे कि समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय पर आधारित हो। 
  2. एक आदमी एक मुल्ये को जीवन के सभी क्षेत्रों में स्थापित करनेवाली हो। भारतीय समाज में ‘एक आदमी एक मत’ यह तत्व राजकीय लोकतंत्र के रूप में स्थापित हुआ हैं। लेक़िन ‘एक आदमी एक मुल्ये’ यह लोकतांत्रिक तत्व स्थापित होना बाक़ी हैं। जिसे सामाजिक लोकतंत्र कह सकते हैं। ओ केवल शिक्षा से ही सफ़ल हो सकता हैं।
  3. समतामूलक मानव संसाधन के साथ-साथ एक ‘ज्ञानी समाज’ का निर्माण हो। जो जाती विरहित, लिंगभेद विरहित, अन्धविश्वास विरहित समाज हो। जिसमें सबको आगे बढ़ने के लिए समान अवसर हो।
  4. शिक्षा में किसी की एकाधिकारशाही, निजीकरण और व्यावसायीकरण अस्वीकार होनी चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र में एकसूत्री और सरकार का होना बहुत ज़रूरी हैं। इसके साथ साथ शिक्षा में विज्ञान, तंत्रज्ञान का स्वीकार करके आधुनिकीकरण हो।


संदर्भ सुची

  1. B.R. Ambedkar Writing and Speeches (1927), Bombay Legislative Council Debates Vol. XIXP.971-76, Vol. 2, p. 39.
  2. B.R. Ambedkar Writing and Speeches (1916), Caste in India; Vol.1; P.9.
  3. B.R. Ambedkar Writing and Speeches (1936), Annihilation of Castes; Vol.1; P.41.
  4. Ibid; P. 67-69.
  5. Ibid; P.67-69.
  6. Ibid; P.67-69
  7. Gaikwad Pradeep (ed.) (1932) Dalitanche Shikshan, Damodar Hall, Mumbai; PP. 126
  8. B.R. Ambedkar Writing and Speeches (1953), Annihilation of Castes; Vol.17; Part-3; P.495.
  9. B.R. Ambedkar Writing and Speeches (1936), Annihilation of Castes; Vol.1; P.56-57.
  10. B.R. Ambedkar Writing and Speeches (1956), Speech Given to Voice of America 20 May 1956; Vol.17; Part-3; PP. 519-520.
  11. B.R. Ambedkar Writing and Speeches (1936), Annihilation of Caste; Vol.1; P.54.
  12. B.R. Ambedkar Writing and Speeches (1955), Mumbai Shiddhart College 03/04/1955; Vol.18; Part-3; P.435.
  13. Gaikwad Pradeep (ed.) (1932) Dalitanche Shikshan, Sitij Publication Nagpur,PP. 182
  14. B.R. Ambedkar Writing and Speeches (1929), Mahabaleshwar; Vol.18; Part-1; P.166-170.







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